Wednesday, April 23, 2008

भारत मे किसानों की स्थिति अमेरिका के रेड इंडियन जैसी

भारत एक कृषि प्रधान देश था लेकिन शायद अब भारत को कृषि प्रधान देश कहने मे किसी को भी हिचकिचाहट होगी ? क्योकि केन्द्र सरकार के कृषि मंत्री श्री शरद पवार ने कुछ समय पहले लोक सभा में बताया था कि देश मे ११,००० किसान प्रतिवर्ष आत्महत्या करते हैं जिसमें भारी संख्या में कर्ज न अदा करने वाले किसान हैं। फोर्ब्स पत्रिका के अनुसार देश में कुल ३६ खरबपति हैं जिसमें अकेले महाराष्ट्र राज्य के मुंबई में २६ पाये जाते हैं. लेकिन उसी राज्य में पिछले १० सालों में कर्ज के बोझ तले दबकर ३६,००० से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है. उनका कहना था कि सरकारी प्रयासों का क्या हाल इसे समझने के लिए यह पर्याप्त होगा कि साल २००६ में प्रधानमंत्री के दौरे के बाद विदर्भ क्षेत्र में पांच हजार पांच सौ से अधिक किसानों ने आत्महत्या की. इनमें से अधिकांश किसानों ने अपने सुसाईड नोट में अपनी आत्महत्या के लिए सीधे प्रधानमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री को जिम्मेदार ठहराया है.
आप ने अभी हाल मे ही सुना या पढा होगा कि देश के किसानों का कर्ज सरकार की तरफ़ से माफ़ कर दिया गया इस् कर्ज माफ़ी के लिए सरकार को कुल ६०.००० करोड़ रूपये का इंतजाम करना पडा इसको लेकर उद्योग जगत मे हाय तौबा मच गई यह कहा जाने लगा कि बैंक कंगाल हो जायेगे, किसानों पर की गई सरकारी दरियादिली के कारण देश की अर्थ व्यवस्था चरमरा जायेगी । आप को बता दें कि इन हाय तौबा मचाने वाले उद्योग जगत के लोगों द्वारा चलाई जा रही कंपनियों के आय पर सरकार ने इतनी छुट दे रक्खी है कि जितना राजस्व वसूल होता है उसका आधा छुट मे निकल जाता है वर्ष २००७-०८ मे केंद्रीय बजट के अनुसार यही उद्योग जगत सरकारी खजाने का २,३५,१९१ करोड़ रुपये डकार गया उसपर तुर्रा यह कि सरकारी नुमाइंदो ने इसे राजस्व की हानि नाम दिया अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकारी खजाने से किसानों को साठ हजार करोड़ रूपये कर्ज माफ़ी के लिए दिया गया और उद्योग जगत के लोग सरकारी खजाने से दो लाख पैतीस हजार एक सौ इक्यान्बे करोड़ रूपये हजम किए । सरकार ने किसानों को दी गई राहत का जोर शोर से प्रचार किया और उद्योग जगत द्वारा हजम किए गए रकम के बारे मे कही भी चर्चा नही हुई ।
अब आइये हम आप को बताते है की किसानों को सरकार द्वारा दिया गया ६०,००० करोड़ रुपया आखिर जाएगा कहाँ । सरकार का यह किसान प्रेम दरसल वित्तीय संस्थाओं के दबाव मे उठाया गया कदम है बैंकों, कोआपरेटिव सोसाइटियों और अन्य वित्तीय संस्थानों का लगभग ३०,००० करोड़ रूपया ऐसा बकाया है जो एनपीए (नान परफार्मिंग एसेट) की श्रेणी में है। रिजर्व बैंक कहता है कि दो फसल चक्रों के बाद भी अगर खेती के लिए गये लोन का पैसा वापस नहीं मिलता है तो बैंक उस रकम को एनपीए घोषित कर सकते हैं देश के किसानों पर इस समय ३ लाख करोड़ से भी अधिक का कर्ज है। इसमें यह ३०.००० करोड़ की रकम बैंकों का एनपीए है. सरकार ने जो पैकेज घोषित किया है उससे बैंको को वह वसूली हो जाएगी जिसे वे अपना डूबा धन मान चुके थे. किसान की जान छूटेगी. क्योंकि अब उसको वसूली की धमकी नहीं आयेगी. लेकिन क्या किसानों को वसूली की धमकी मिलनी चाहिए जबकि रिजर्व बैंक खुद कहता है कि पैदावार न होने के कारण अगर किसान कर्ज नहीं दे सकता तो उस रकम को एनपीए मान लिया जाए. इसका मतलब यह है कि बैंक भागते भूत की लंगोटी की तर्ज पर जो कुछ रकम वसूल हो जाए उसे वसूल करना चाहते हैं ।
किसानों के प्रति राज्य सरकारों रवैया क्या है आपको उत्तर प्रदेश के बुन्देल खंड के ३०० किसानों के ऊपर इसलिए यू पी सरकार एफ आई आर करवा देती है क्योकि वे भूगर्भ से पानी निकाल कर अपने खेतों की सिंचाई करने का साहस किया हमारे देश की सरकारें पूंजीपतियों को नदियाँ और बडे बडे जलस्रोत सौप देती है और वे उन जल स्रोतों के उस पानी को जो प्रकृति ने मुफ्त मे दिया है उसे १२ रूपये लीटर मिनरल वाटर के नाम से बेच कर भारी मुनाफा कमा रहे है । भारत मे आबादी का सत्तर फीसदी हिस्सा गांव मे रहता है खेती से जुड़ा हुआ है और देश में ७० फीसदी किसानों के पास आधा हेक्टेयर से कम भूमि है। एक हेक्टेयर में सकल कृषि उपज का मूल्य ३०,००० रु। अनुमानित है। अत: लगभग तीन चौथाई किसान परिवार १५,००० रु. वार्षिक आमदनी पर जीवन यापन कर रहे हैं। गरीबी रेखा २१,००० रुपए मानी गई है। यानि स्पष्ट है कि ये तीन चौथाई किसान किसान नही बल्कि कृषि मजदुर है और अब तो इनकी जमीन को भी उद्योग जगत पैसे की ताकत से इनसे छीन लेना चाहता है इस् कयावत मे सरकार भी सामिल है ।
विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) और विशेष कृषि आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना की घोषणा के बाद इस प्रवृति को अधिक बल मिला है। विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना, अवासीय परिसरों के निर्माण, कृषि फार्मों की स्थापना, भूमि बैंकों की स्थापना, आवासीय परिसरों के निर्माण, कृषि फार्मों की स्थापना, भूमि बैंकों की स्थापना, सड़क निर्माण आदि के लिये व्यावसायिक घराने एवं कम्पनियाँ लाखों एकड़ भूमि खरीदने को आतुर हैं। रिलायंस इन्डस्ट्रीज, टाटा समूह, बाबा कलयानी, सहारा, महिन्द्रा ग्रुप, अंसल, इन्फोसिस, इंडिया बुल्स आदि नगरों में या उसके निकट बड़े-बड़े भू-भाग खरीदने को आतुर हैं। टाटा समूह ने भारत में कहीं भी ३ एकड़ से २५००० एकड़ तक भूमि निजी स्वामियों से खरीदने का विज्ञापन दिया है आज हमारी सरकारों द्वारा किसानों के प्रति जो नीति अपनाई जा रही है वो बर्ड फ्लू के समय मुर्गियों के साथ अपनाई गई नीति के समान ही है ।

Thursday, April 10, 2008

गरीब सवर्ण आरक्षण के हक़दार क्यों नही ?

क्या अब केंद्र सरकार सवर्ण गरीबों को भी आरक्षण पर पहल करेगी?


सुप्रीमकोर्ट ने बृहस्पतिवार को एक अहम फैसले में केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछडा वर्ग [ओबीसी] के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को मंजूरी दे दी, लेकिन इस वर्ग की क्रीमीलेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर रखने के निर्देश दिए। कोर्ट ने साथ आरक्षण की इस नीति की समय-समय पर समीक्षा करने का भी आदेश दिया। क्रीमी लेयर को परे रखने का फैसला तो स्वागत योग्य है मगर यह न्यायपूर्ण तभी होगा जब सवर्ण गरीबों को भी आरक्षण का लाभ मिले। इस बात को परे रखने के कारण ही मायावती ने सवर्णों के लिए यह मांग रख दी है। चुनाव जीतने के साथ ही उन्होंने सवर्ण गरीबों को आरक्षण का वायदा किया था। अब जबकि केंद्र में प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नजर है इस लिए फौरन सवर्णों की मांग रख दी। दलितों की तो वे नेता हैं ही मगर सशक्त तरीके से गरीब सवर्णों के लिए आवाज भी उठा रही हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले आने के साथ ही उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अन्य पिछड़ा वर्ग को केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण की मंजूरी के सुप्रीमकोर्ट के फैसले का स्वागत किया और कहा कि उच्च वर्ग के गरीब तबके को भी इस प्रकार का लाभ दिया जाना चाहिए। मायावती ने कहा कि अन्य पिछड़ा वर्ग के अधिकांश लोग आर्थिक एवं शैक्षिक रूप से तरक्की नहीं कर सके हैं, इसलिए उन्हें इस प्रकार के लाभ देने की सख्त आवश्यकता थी और उन्हें आरक्षण का फायदा मिलना ही चाहिए था। मुख्यमंत्री ने कहा कि वह केंद्र सरकार को पत्र लिखकर मांग कर रही हैं कि उच्च वर्ग के गरीब वर्ग को भी उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिया जाए, ताकि उनके बच्चे भी उच्च शिक्षा ग्रहण कर अपना जीवन स्तर सुधारने के साथ-साथ देश की प्रगति में भी सहायक बन सकें। मायावती की यह मांग भले राजनीति के कारण है मगर न्यायसंगत है कि गरीब सवर्णों को भी आरक्षण दे सरकार।
आज मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिलाने वाले 2006 के केंद्रीय शिक्षण संस्थान [प्रवेश में आरक्षण] कानून को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए लंबी बहस के बाद उक्त कानून को वैध ठहराया, लेकिन साथ ही यह भी निर्देश दिया कि यदि आरक्षण का आधार जाति है तो इस वर्ग के सुविधा संपन्न यानी क्रीमीलेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर रखा जाए। पीठ ने चार एक के बहुमत से उक्त कानून को वैध ठहराया। न्यायमूर्ति दलबीर भंडारी ने इससे असहमति जताई। पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति अरिजित पसायत, न्यायमूर्ति सी के ठक्कर और न्यायमूर्ति आर वी रवींद्रन शामिल हैं।
ओबीसी के आरक्षण में दायर याचिकाओं में सरकारी कदम का जबरदस्त विरोध करते हुए कहा गया था कि पिछड़े वर्गो की पहचान के लिए जाति को शुरुआती बिंदु नहीं माना जा सकता। आरक्षण विरोधी याचिकाओं में क्रीमीलेयर को आरक्षण नीति में शामिल किए जाने का भी विरोध किया गया था। इस फैसले से न्यायालय के 29 मार्च 2007 के अंतरिम आदेश में कानून के कार्यान्वयन पर लगाई गई रोक समाप्त हो जाएगी। फैसले के बाद अब आरक्षण नीति को 2008-09 शैक्षणिक सत्र में लागू किया जा सकेगा।

ओबीसी का आरक्षण सफरनामा

आईआईटी और आईआईएम सहित केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने से संबंधित विवादास्पद कानून की संवैधानिक वैधता को लेकर घटनाक्रम इस प्रकार रहा:-

20 जनवरी 2006: सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े वर्गो तथा अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों को शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश देने के लिए सरकार को विशेष प्रावधान बनाने की शक्ति देने वाला संवैधानिक [93वां संशोधन] अधिनियम 2005 प्रभाव में आया।

16 मई 2006: सामाजिक न्याय और अधिकारिता मामलों की स्थायी समिति ने अपनी 15वीं रिपोर्ट सौंपी जिसमें कहा गया कि पिछड़े वर्गो के मुद्दे को लेकर कोई जनगणना नहीं कराई गई। इसमें कहा गया कि भारत के महापंजीयक की रिपोर्ट के अनुसार 2001 की जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित आंकड़ों के बारे में कोई जानकारी नहीं ।

22 मई 2006: अशोक कुमार ठाकुर ने सुप्रीमकोर्ट में याचिका दायर कर अधिनियम 2006 के तहत केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों के दाखिलों में आरक्षण दिए जाने के मामले को चुनौती दी। उस समय अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान [एम्स] में आरक्षण विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था।

27 मई 2006: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उच्च शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण कार्यान्वयन से संबंधित अधिनियम को देखने के लिए एक निगरानी समिति बनाई। समिति ने अपनी रिपोर्ट में सरकार को चेताया कि अधिनियम के कार्यान्वयन से शैक्षणिक योग्यता के साथ समझौता होगा और इससे जनसांख्यिकी आपदा पैदा होगी।

29 मई 2006: सुप्रीमकोर्ट ने याचिका पर केंद्र को नोटिस भेजा।

31 मई 2006: सुप्रीमकोर्ट ने सभी संबंधित नागरिकों को याचिका पर पार्टी बनने की अनुमति दी और उनसे नई याचिका दायर करने को कहा।

1 दिसंबर 2006: मानव संसाधन और विकास मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 186वीं रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में पेश की और कहा कि 1931 के बाद जाति के आधार पर कोई जनगणना नहीं हुई।

1 जनवरी 2007: अधिनियम के कार्यान्वयन को चुनौती देने वाली एक और याचिका सुप्रीमकोर्ट में दायर।

29 मार्च 2007: सुप्रीमकोर्ट ने अधिनियम के कार्यान्वयन को स्थगित करते हुए अंतरिम आदेश दिया।

7 अगस्त 2007: पांच न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ ने अधिनियम की वैधता पर फैसला देने के लिए सुनवाई शुरू की।

11 नवंबर 2007: 25 दिन की सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रखा गया।

10 अप्रैल 2008: सुप्रीमकोर्ट ने शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण उपलब्ध कराने वाले केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान [प्रवेश आरक्षण] अधिनियम 2006 की वैधता को बरकरार रखा।

Thursday, April 3, 2008

मंहगाई रोकने के लिए कमिटी

२ अप्रैल को भारत सरकार के पाल्हे से मिडिया के पाल्हे मे एक ख़बर उछाली गई । सरकार मंहगाई रोकने के लिए कमिटी (कमीशन ) बनाने का फरमान जारी कर दिया । हमारे देश मे एक परंपरा चली आ रही है इस परंपरा को सभी सरकारें सिद्दत से निभा भी रही है कि पहले समस्या पैदा करो और जब समस्या विकराल रूप धारण करले तो उसके समाधान हेतु सुझाव प्राप्त करने के लिए एक कमिटी (कमीशन ) का गठन कर दो ।
इतिहास गवाह है कमिटीयां सरकारों को अपना रिपोर्ट देने मे अच्छा-खासा समय लगाती है " तुम मुझे समय दो मैं तुम्हे रिपोर्ट दूंगी" का टैग लटकाए ए कमिटीयां अपनी रिपोर्ट जब सरकारों को सौंपती है तो सरकारी नुमाइन्दो के पास रिपोर्ट पढ़ने का समय नही होता रिपोर्ट मे दिए गए सुझावों को लागु करना तो दूर की बात है ।
अरे भाई मंहगाई को रोकने का नाटक आम जनता के सामने क्यों कर रहे हो मंहगाई तो आप ने ही बढाया है ? अगर मंहगाई को आप नही रोक पा रहे हो तो आप की कमेटी (कमीशन ) क्या खाक मंहगाई रोकेगी ? यह समस्या तो आपने ही सरकारी खजाने को भरने के चक्कर मे खडा किया है । वायदा बाजार के नाम पर खाद्यानों की सट्टा-बाजारी कराना और उनसे भी टैक्स वसूलने के फिराक मे "कमोडिटी ट्रांजेक्शन टैक्स" ( जिसका गजट आना बाकी है ) आप मुनाफा कमाओगे तो मंहगाई बढेगी ही ।
राष्ट्रीय स्तर पर किसानों की पैरवी करने वाले सी आई एफ ए के मुख्य सचिव पी चेंगल रेड्डी ने बताया है की सकल घरेलु उत्पाद (जीडीपी) मे कृषि की हिस्सेदारी १९८२-८३ के ३६.४ प्रतिशत से घट कर २००६-०७ मे १८.५ प्रतिशत रह गई इसीसे मंहगाई के सही तस्वीर का अंदाजा लगाया जा सकता है । आपको जानकर हैरानी होगी कि वायदा बाजार मे दो एक्सचेंज है एम् सी एक्स और एन सी डी ई एक्स पिछले महीने मे एक एक्सचेंज मे कपास के दाम ८० रूपये सस्ता था और दुसरे मे ८० रूपये मंहगा हम सरकार से जानना चाहते है कि फॉरवर्ड मार्केट कमीशन (एफ एम् सी ) का रोल क्या है ? एफ एम् सी ने कुछ चुनिंदा मंडियों और वायदा कारोबारियों को खाद्यानों के भाव के उतार-चढाव को नियंत्रित करने छूट क्यों दे रक्खी है ?
दरसल सरकार मंहगाई को नियंत्रित करने के लिए यह कसरत नही कर रही है । उसकी गिद्धदृष्टि लोकसभा के चुनावों को लेकर है उसे यह पता है कि अगर उसने मंहगाई रोकने के लिए जनता के समक्ष दिखावा नही करेगी तो जनता उसे लोकसभा चुनावों मे सस्ते मे ही निपटा देंगी ।

Tuesday, April 1, 2008

ऐ गनपत, चल दारू ला

हम लोग काफी दिनों से एक फिल्मी गाना सुन रहे ने फ़िल्म का नाम है " सूट आउट एट लोखंडवाला" गाने के बोल है "" ऐ गनपत चल दारू ला... कुछ सोडा वोडा दे न यार ... गाना ऐसा कि सुन कर ऐसा लगता है की इस् फिल्मी गाने को अपने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री अम्बुमणि रामादौश को पता नही है या फ़िर उनका लक्ष्य केवल फिल्मो मे सिगरेट न पीने तक ही सीमित है या फ़िर शायद वे अपने नशा मुक्ति कार्यक्रम से इसे दूर ही रक्खा है । अपुन को तो मालूम नही कि अम्बुमणि और फ़िल्म वालो मे कुछ सेटिंग होगी ?
आश्चर्य तब होता है जब गली के बच्चो द्वारा यह गाना गाते हुए सुना जाता है । तब हद हो जाती है जब किसी किसी के मोबाइल रिंग टोन मे यह गाना सुनने को मिल जाता है इस गाने को सुन कर पियककड कि दारू कि प्यास बढ़ जाती होगी, उसका दारू पीने का मन करता होगा, अगर पी लेते होंगे तो सुबह उठने का जी नहीं करता होगा, शाम को पी लेने पर सुबह पछतावा होता होगा, क्यों डिग गया, शरीर की चिंता नही, घर-परिवार की चिंता नहीं, कैरियर की चिंता नही, कब सुधरोगे । रोज तो सोचते हो लेकिन शाम को अनिर्णय की स्थिति मे पहुंच कर दारू हलक के निचे उतार ही लेते हो ।
गनपत चल दारू ला.... ! आज कल हमारा बुद्धू-बक्सा अब बुद्धू नही रहा वहां तमाम मनोरंजन के चैनल शुरू हो गए है जो कि हमारे ड्राइंग रूम मे बुजुर्ग एवं बच्चों मे बिना फर्क किए बजते चले जा रहे है शर्म तब आने लगती है जब गाने की वो पक्ति " माधुरी दीक्षित हो या हो ऐश्वर्या रॉय जाए जहाँ मर्जी साली जा के मराए" क्या इस गाने पूरे परिवार के साथ बैठ कर सुना जा सकता है, क्या यही मनोरंजन है, क्या यह अश्लील नही है, आखिर सेंसर बोर्ड की जिम्मेदारी क्या है ? मुझे उम्मीद है की मेरे कट्टर बेवड़े भाई मेरी इस गुस्ताखी को माफ़ करेंगे मेरे आर्टिकल का आशय उनके दिल को दुखाना नही है क्योकि वो तो दिल से दारू पिटे है, हम तो हमारे स्वास्थ्य मंत्री को इस गाने की विशेषता से रूबरू कराना चाहते है जिनको फिल्मों मे केवल सिगरेट दिखती है ।